अकेले हैं चले आओ...
0जम्मू वाले साहेब को लहुरीकाशी की सता रही याद
01984 से लेकर 2019 तक लहुरीकाशी को सींचते रहे
0अब संवैधानिक कारणों से इस बार नहीं लड़ रहे चुनाव
अजीत केआर सिंह गाजीपुर। अकेले हैं चले आओ, जहां हो तुम...। वर्ष 1967 में राज फिल्म के लिए मुहम्मद रफी साहब का गाया हुआ यह गीत आजकल कश्मीर वाले साहेब पर सटीक बैठ रहा है। आज कल उन्हें लहुरीकाशी के उन बागों की याद अधिक सता रही है जिन्हें उन्होंने चार दशक तक अपने हाथों से सींचा था।
यह सुनकर उनकी आंखें नम हो जाती हैं जब कोई उनके सामने यह गुनगुनाता है कि देश में रहूं, चाहे परदेश में रहूं, चाहे कौनो वेष में रहूं, रउरे कहइबो...। मगर संवैधानिक कारणों से वह इस बार चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। उन्हें चुनाव भी लड़ना होगा तो यह फैसला भगवाधारी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को करना पड़ेगा। क्योंकि साहेब का सियासी भाग्य दिल्ली में तय होगा। मगर उनका बछड़ुआ उनकी यादों को समय समय पर ताजा करता आ रहा है।
बात उन दिनों की है जब वह बीएचयू जैसी बड़ी संस्था के अध्यक्ष बनने के बाद लहुरीकाशी आए थे। उन्होंने वर्ष 1984 में पहला चुनाव लड़ा था। मगर हार का सामना करना पड़ा। फिर वह हार नहीं माने और भगवाधारी पार्टी की सेवा करते रहे। जब 1989 आया तो गठबंधन के खाते में उनकी पार्टी को यह सीट मिली थी, लेकिन उनके कुछ सियासी दुश्मनों ने सिंबल लाने में देर कर दी।
जिसके बाद उन्हें पर्चा वापस लेना पड़ा था। तभी तो मछली चुनाव चिंह से निर्दल उम्मीदवार रहे कुशवाहा जी बाजी मार लिए। यह सियासी साजिश को साहेब आज तक नहीं भूल पाते हैं। यही कारण रहा है कि जब भी उन्हें 1989 की याद आती है तो चेहरा गुस्से से लाल हो जाता है। फिर चुनाव होता है। उस समय भी उन्हें हार मिलती है। किस्मत लगातार साहेब को चुनौती देती रही। मगर वह हार नहीं माने। इसके बाद उन्होंने किस्मत को भी चुनौती दे डाली।
तभी 1996 का चुनाव आया तो उनकी जिद्द के आगे किस्मत को झुकना पड़ा और वह पहली बार देश की सबसे बड़ी पंचायत में बैठने के काबिल बने। फिर जब 1998 का चुनाव आया तो दाढ़ी ने उन्हें मात दे दी और वह हार गए। लेकिन सियासी जिद्द के कारण उन्होंने एक वर्ष बाद ही 1999 में फिर दाढ़ी से अपनी हार का बदला लिया और पूरे पांच वर्ष तक सांसद रहे।
पांच वर्ष का कार्यकाल बहुत ही शानदार रहा। उन्हें ईमानदार सांसदों की लिस्ट में शामिल किया गया। इसी बीच उनके सियासी रिश्ते भगवाधारी पार्टी में मजबूत हो गए। यहां तक की गुजरात वाले साहेब भी पसंद करने लगे थे। जब 2004 में लोकसभा का चुनाव आया तो अंसारियों से उन्हें भारी अंतरों से हार का सामना करना पड़ा। लेकिन उनके सियासी रिश्ते लहुरीकाशी से खत्म नहीं हुए। वर्ष 2009 में लहुरीकाशी ने जब निराश किया तो वह भृगु नगरी में चले गए। मगर वहां भी उन्हें निराश होना पड़ा।
तब उन्होंने सोच लिया कि अब नहीं लड़ेंगे। तभी सियासी यात्रा के दौरान ट्रेन में एक बाबा मिले और कहे कि नेताजी आप निराश मत होइये। एक दौर ऐसा आएगा कि पूरा देश आपको जानेगा और पहचानेगा। आप देश के सबसे बड़े पावर सेंटर के करीब होंगे। यह बात उन्होंने हल्के में भले ही ली, लेकिन जब भी किसी से मिलते थे तब कहते थे कि बाबा ने कहा कि एक चुनाव और लड़कर सन्यास ले लूंगा।
यूपीए सरकार के खिलाफ वर्ष 2013 से ही देश में मोदी लहर आ चुकी थी और जब 2014 का चुनाव आया तो उन्हें लहुरीकाशी से फिर लड़ने का मौका मिला। यह चुनाव उनके जीवन का टर्निंग प्वाइंट था। लहुरीकाशी की जनता ने उन्हें हाथों हाथ लिया और वह तीसरी बार देश की संसद में पहुंचे। तब वह सरकार में शामिल होकर लहुरीकाशी में सरकार बनकर आए। जो उनसे मिलने से आंखें चुराता था वही उनसे आंखें चार करने के लिए तरस रहा था। उनके साथ बड़ा लाव लश्कर था।
अफसर उन्हें सलामी दे रहे थे। जिले ने महीनों तक स्वागत किया। उन्होंने हजारों करोड़ की सौगात दी। तभी तो उन्हें लहुरीकाशी ने विकास पुरूष कहकर पुकारा। मगर 2019 में जातिवाद के जालिमों ने फिर रोक दिया। और विकास हार गया। यहां भी उनकी किस्मत ने एक वर्ष बाद फिर चमत्कार कर दिया औैर वह जम्मू के साहेब बन गए। साहेब बनकर भी आए। स्वागत भी हुआ। कई वर्षों तक आने जाने का यह खेल चलता रहा। अब जब 2024 के चुनाव की बारी आई तो उनके सियासी भविष्य पर केंद्र का पहरा पड़ गया।
तभी तो उनकी आंखें हमेशा लहुरीकाशी के लिए आंसू बहाती हैं। और वह चाहकर भी यह गीत गुनगुनाते लगते हैं। न जाने मुझे क्यों यकीन हो चला है मेरे प्यार को तुम मिटा न सकोगे...।