पिता के साथ बेटियां, मगर भाई जान का बेटा कहां

0पिता को जीत दिलाने के लिए सुबह से शाम तक कर रहीं हैं प्रचार

0जो बेटियां पर्दे में रहती थी, आज वह पिता के लिए लोगों में मांग रही वोट

0भाई जान का बेटा अभी भी है गमजदा, उसे सियासत नहीं भाई की जमानत की चिंता

अजीत केआर सिंह, गाजीपुर। ओस की बूँद होती हैं बेटियाँ। स्पर्श खुरदुरा हो तो रोती है बेटियाँ। रोशन करेगा बेटा तो बस एक ही कुल को ,दो दो कुलों की लाज होती हैं बेटियाँ। कोई नहीं एक दूसरे से कम, हीरा अगर है बेटा सच्चा मोती है बेटियाँ...। किसी शायर की यह लाइनें आज कल गाजीपुर की सियासी जगत में लोगों की जुबान पर हैं।

जी हां। बादशाह सलामत की दोनों बेटियां घर की देहरी से निकलकर पिता का सियासत में सहारा बन चुकी हैं। मगर भाईजान के बेटे जिसने मूछों पर ताव दिया था, वह चालीसवां भी बीत जाने के बाद भी नहीं दिखाई दिया। इसको लेकर अब घर की बातें बाहर आने लगी हैं। कुछ लोगों ने यहां तक दिया कि घर में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है।

भाई जान के परिवार का इतिहास रहा है। कभी भी चौखट की देहरी पर महिलाएं प्रचार करने नहीं निकलती थीं। बादशाह सलामत ही चुनाव प्रचार करने जाते थे। जब तीनों भाइयों के बेटे बड़े हुए तो सियासत में भाग्य आजमाना शुरू किया। मौजूदा समय में दो बेटे माननीय बन चुके हैं। बादशाह सलामत दिल्ली वाली पंचायत के सदस्य हैं। अब वह तीसरी बार दिल्ली जाने की जुगत में लगे हुए हैं। मगर भगवाधारियों के कानूनी दांव पेच में बादशाह का सियासी दिमाग चकरा गया है। अब वह तारीख भी नामांकन के आखिर दिन ही पड़ी है। कोर्ट में तारीख पर तारीख मिल रही है। इधर बादशाह की सियासत दांव पर लगी है। उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि करें तो क्या करें। तभी तो चार चार सेट में नामांकन पत्र खरीद लिया। मगर सवाल उठता है कि क्या दोनों लड़ेंगे। सिंबल तो किसी एक को ही टीपू अपनी पार्टी से देंगे। वैसे यह बात तो पूरी तरह से सच है कि बेटी ही मैदान में होगी। क्योंकि बादशाह सलामत के सियासी भाग्य का फैसला कोर्ट के फैसले पर निर्भर करता है। खैर उनकी दोनों बेटियां ख्वातिनों को गजब तरीके से समझा रही हैं। किस तरह से मोदी सरकार की आलोचना कर रही हैं। दरी पर बैठकर गैस सिलेंडर से लेकर रोजगार की बात कर रही हैं। इनकी दस वर्ष की सरकार कैसे गरीबों का रोजगार छिन लिया। नौकरियां गायब कर दीं। गरीब गरीबी के दलदल में फंसता जा रहा है। जब बेटियों के सियासी भाषण को पूरे तसल्ली से सुना जाए तो ऐसा लगता है कि वालिद से सियासत में तनिक भी कम नहीं हैं दोनों बेटियां। बड़ी बेटी को बादशाह सलामत ने पहले ही सियासी वारिस घोषित कर दिया है। तभी तो चालीसवां वाले दिन ही नामांकन पत्र खरीदा गया। और दूसरे दिन पिता और दोनों बेटियां सुबह से लेकर देर रात तक लोगों को समझाकर टीपू और पप्पू के हाथों को मजबूत करने की बात कह रही हैं। मगर इन बेटियों के आवाज के बीच भाईजान के बेटे का कहीं भी अता पता नहीं है। वह गुमसुम रहता है। उसके चेहरे की उदासी कुछ कहती है। उसे समझ में नहीं आ रहा है कि करूं तो क्या करूं।

क्योंकि वालिद के खोने का गम वह भूला नहीं पा रहा है। उसे यह भी समझ में नही आ रहा है कि इस सियासी दुनिया ने मेरे सिर से पिता का साया छिन लिया। किस तरह से कह दूं कि बादशाह सलामत को वोट कर दें। भले ही मेरे अब्बू के नाम को भूनाकर कोई वोट लेले, मगर मैं जहां हूं वहीं रहूंगा...।



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