पारस को पारस बनाने के लिए साहेब देंगे बूस्टर डोज

04 को फिर कश्मीर की ठंडी हवा लेकर आएंगे लहुरीकाशी

0हीट स्ट्रोक को कम करके शुरू करेंगे कनफुकआ सियासत

0जहां भी गए, वहां पर कीचड़ में खिलाया कमल का फूल

0चार का बूस्टर डोज सैदपुर से शुरू, जमानियां में होगा खत्म

अजीत केआर सिंह, गाजीपुर। अभी वह आए थे। उन्होंने कीचड़ में कमल खिलाया। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक की बात की। राम मंदिर में बैठे मर्यादा पुरूषोत्तम की बात करके दिल्ली वाले साहेब की खूब तारीफ की। हर किसी को गले लगाया। थोड़ा मुस्कुराए तो थोड़ा समझाए भी।

जहां गए वहां की महफिल लूट ली। जब इंजीनियर साहब के कालेज पर पहुंचे तो भूमिहारों के महाकुंभ को देखकर गदगए हो गए। यहां युवा तुर्क का बेटा भीड़ देखकर मंच पर आने की कोशिश किया, मगर इशारों में रोका और फिर एक न्यौता में समझाए। बोले, अभी तो यह अंगड़ाई है आगे और लड़ाई है। उनके बयान से लेकर हर कार्यक्रम की गतिविधियों पर टीपू के लोग नजर गड़ाए रहे, मगर कुछ नहीं मिल पाया। आप सोच रहे होंगे कि यह बात किसकी हो रही है तो यह जान लीजिए...। कश्मीर वाले साहेब की।

अब साहेब चार मई को आएंगे तो इस बार पारस को पारस बनाने के लिए बुस्टर डोज देकर जाएंगे। इसकी शुरूआत सैदपुर से शुरू होकर जमानियां में खत्म होगी। मंच भी राष्ट्रवाद और शिक्षावाद का जरूर होगा, मगर इसमें सियासत की चासनी ऐसी रहेगी कि बादशाह सलामत की भले ही जुबान चले, मगर वह चाहकर भी कुछ नहीं कर पाएंगे। इस बार 2019 की सियासी हार का बदला लेने के लिए साहेब पारस को पारस बनाने के लिए इस कदर बेचैन हैं कि उनकी रातों की नींद और दिन का चैन भी छिन गया है। यही कारण है कि हर जगह फोन की घंटियां घनघनाकर शांत माहौल को अपने पक्ष में करने की हर कोशिश करने में जुटे हुए हैं।

कश्मीर वाले साहेब आए तो दो इंजीनियर साहब को खूब पसंद किए। छोटे इंजीनियर एनजीओ भी चलाते हैं। उनके कैम्पस में पहुंचे तो लहुरीकाशी की महफिल सजी थी, जबकि बड़े इंजीनियर साहब के यहां भूमिहारों का महाकुंभ लगा था। कभी खुलकर सियासी बातें कहने वाले साहेब की जुबान सिर्फ राष्ट्रवाद और शिक्षावाद से लेकर राम तक सिमट कर रह गई थी। लेकिन इशारों में उन्होंने वह बात कह दी, जिसे दिल्ली वाले बड़े साहेब तो खूब पसंद करेंगे। किचड़ में खिलने वाले कमल को मणि की संज्ञा दी तो विकास को देश की लाइफ लाइन तक कह डाला था। अब सवाल उठता है कि लहुरीकाशी में चुनाव के समय साहेब क्यों राष्ट्रवाद को लेकर चिंतित हैं।

जब इसकी पड़ताल की गई तो पता चला कि 2019 की हार का बदला लेने के लिए साहेब पारस को पारस बनाना चाह रहे हैं। दोनों की दोस्ती भी कुछ ऐसी थी कि पारस कभी साथ साथ ट्रेन से लेकर दो कमरों तक का भी सफर तय कर चुके हैं। अब वास्तव में वह साहेब बन गए। ऐसे में दोस्ती का फर्ज अदा करने के लिए बेटे की सियासत को भी उन्हांेने ठोकर माकर ऐसे दोस्त को मैदान में उतार दिया जो शिक्षाविद् रहा है। वह लहुरीकाशी में शिक्षा के क्षेत्र में हर जगह नाम कमाया हो।

भले ही चंद्रिका यादव जैसे नेता उन्हें कुछ भी कहें। मगर कश्मीर वाले साहेब ने ठान लिया है कि कुछ भी हो जाए अब यह लड़ाई आरपार की होगी। इसके लिए उन्हें जो भी कुछ करना होगा करेंगे। अब सवाल उठता है कि जिस दल से पारस आए हैं, वहां पर राजपूत नेताओं के चेहरे पर वह रौनक नहीं है जो रौनक होनी चाहिए। आखिर किस वजह से इनके चेहरे मुरझाए से रहते हैं।

युवराज भी काशी छोड़ना पसंद नहीं कर रहे हैं। कभी कभार ही वह भी कीचड़ में कमल खिलाना चाह रहे हैं। जीजा का साला भी अपनी बेगम को मैदान में नहीं उतार पा रहा है। हालांकि वहां कुछ मांगलिक कार्यक्रम थे। वैसे साले को इस बात का मलाल जरूर है कि कश्मीर वाले साहेब हमरे बाबू के मरले में ना अइलं...। जबकि उनका बछड़ुआ भी उस समय इधर उधर ही टहल रहा था। सवाल उठता है साहेब कौन सी सियासी गणित लगाकर यह चुनाव जीतना चाह रहे हैं।

जब वह खुद आए मैदान में तब तो सवा लाख की बात सामने आई, लेकिन अब वह खुद नहीं हैं फिर कैसे सियासी गणित फिट बैठेगी। वैसे टीपू के बादशाह सलामत रोजाना मीडिया के सामने चैलेंज कर रहे हैं कि कश्मीर वाले साहेब मुझसे डर गए, वरना वह खुद आए होते तो चुनाव सिर्फ लड़ते, मतगणना में नहीं बैठ पाते।



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