जब भूतों ने रात भर साहू जी से तौलवाया ढेला

खोही पर के बुडुआ

लेखक इंद्र कुमार दीक्षित

संस्मरण मनुष्य के बचपन का जीवन बड़ा आनन्द दाई होता है, भोजन करने, खेलने और थोड़ी बहुत पढाई के अलावा कोई विशेष जिम्मेदारी नहीँ । दसवीं कक्षा के पहले तक तरह तरह के खेल तमाशे की कल्पनाएं मन को तरंगित किये रहतीं।दोस्तों के साथ खेत- बारी, मैदान, खलिहान, हाट-- बाजार घूमना और मस्ती- मटरगश्ती करना , छुट्टियों में रात के समय गांवों में होने वाली रामलीला या रासलीला पार्टी के नाटक देखना,गर्मियों की रात शादी- व्याह में गाँव-- गाँव घूमकर नाच देखना ,मेरे बचपन में यही सब मनोरंजन का मुख्य साधन थे। आम पकने के दिनों में टार्च बत्ती लेकर रात के दो ढाई बजे ही बाग बगीचों में झोली लेकर आम बींनने निकल जाते और मुँह अन्धेरे घर लौटआते न चोर- चाई का डर न ही साँप बिच्छू का कभी कभी रखवार द्वारा पकड़ लिये जाने पर अन्धेरे में दो चार तमाचा खाने की नौबत भी आ जाती।

जिसकी चर्चा हम लोग भूल से भी घर पर नहीँ करते क्योंकि फिर वहाँ भी वही पिटाई का डर था । जाड़े की रातों में देर रात तक कोल्हुआड़ में गुड पकता तो दो- दो, तीन- तीन घन्टे तक बड़े चूल्हे के इर्द गिर्द बैठकर गाँव के बड़े - बूढ़ों की बातें, भूत- प्रेतों, चुड़ैलों की कहानियां और उनके कारनामोंकी लन्तरानियां सुनने को मिलतीं।समय कितना बीत गया,पता ही नहीँ चलता।

उन्होने बताया कि बगल के गांव बीरपुर के पूजन साहु एक दिन गुड़ बेचने बरहज गए थे,फागुन का महीना था ।ठंडक कम हो रही थी,पर थी। पूजन साहु को बरहज से लौटने में देर हो गई ।

उस दिन वे गाँव से अकेले गए थे,खोही पर आते-आते पहर रात हो गई, पूरा सीवान सुनसान जैसे भाँय- भाँय कर रहा था। चांदनी रात में रास्ता तो दिख रहा था पर झाड़ी झूंटा देखकर किसी आदमी या भूत- प्रेत के होने का भ्रम हो जाता।कभी कोई चिड़िया टें- टें बोलती हुई गुजरती तो साहु जी सिहर उठते।उनके पास गुड़ बेचने से मिले रुपये, एक बोरे में लपेटा तराजू- बट्खरा और हाथ में एक लाठी भर थी।

खोही के पास पहुँचते- पहुँचते कुछ सांय- सांय की नासिका ध्वनि मेंआवाज सुनाई देने लगी ।उन्हें आभास हुआ कि कई छायाएं उनके अगल

बगल चल रहीं हैं और उनके मुँह से कुछ फुसफुसाहट भरी आवाज निकल रही है ए सारे रुकु ए सारे रुकु, तनी सुर्ती बनाउ । पूजन समझ गए की बुडुओं ने मुझे घेर लिया है,अब जान नहीँ बचेगी ।बुडुआ उस भूत को कहते हैं जो पानी में डूब कर मरा होता है और उसकी आत्मा प्रेत बनकर भटक रही होती है। अगल बगल देखे बिना वे बजरंग बली

का नाम लेते चले जा रहे थे,लेकिन नाले तक पहुँचते पहुँचते यह सुनकर कि ई सुनत नइखे एकर गरदन दबाके मार द सन वे डर के मारे कांपने लगे पर बनिया थे, हिम्मत करके बोले कि तोहन के का चाहीं ,हम सुर्ती नाईं खालीं, आ अउर किछू हमरेलग्गे बा नाहीं,हमार जान बकसि द लोगन तो उनमें से एक बोला कि, चल सारे !भेली तउल।साहुजी बोले कि भेली त बिका गइलबा, का तउलीं फिर वे सब साहु जी को घेर कर ढेलार खेत में ले गए और बोले ले सारे सुर्ती ना खिअइबे त ढेला तउल। और लगे सब ढेला (बड़े - बड़े मिट्टी के टुकड़े) गाँजने।

मरता क्या न करता । जान बचाने के लिये ढेला तौलने पर राजी हो गए,पर उनकी बुद्धि में आया कि भगवान का नाम लेते रहने से भूत

शरीर को नहीँ छू सकते। पूजन साहु तराजू पर ढेला रखकर तौलने लगे और हर बार रामे हऽ रामे कहते हुए ढेले की खेप गिराते रहे। बुडुआ बोलते हरे सारे दू (2)काहें नइखे बोलतपर साहु जी थे हुँसियार, वे रामे हऽ रामे (माने- एक) ही कहते रहे।ढेला जोखते जोखते उनको भोर हो गई,बाँह मानो फटी जा रही थी ,पर हार नहीँ माने।उजियार होने पर बुडुआ उनको गाली देते हुए भाग गए। तब तक जागरण हो गया ,इक्के दुक्के लोग दिसा फराकत होने खोही की तरफ आने लगे , उन लोगों ने इनको बेहोश लेटे हुए पाया तो पानी का छींटा मुँह पर मारकर जगाए।

तब साहु जी ने रात की आप बीती सुनाई।बाद में यह बात मुँहे मुँहे आस पास के गाँवों तक फैल गई। जब तक कोमल चौधरी की यह दंत कहानी खतम हुई तब तक गुड़ पक चुका था।

कड़ाह उतारकर कुछ देर कठुआ जाने पर हमने गुड़ की भेली बनाया और घर आये तब रात के बारह बज रहे थे।इस वाकिए की याद आने पर आज भी सिहरन हो जाती है। बीरपुर हमारे गाँव मरहवा के सटे पूरब का गाँव है जहाँ बनिया बिरादरी के लोग अधिक हैंं, यह गाँव अब कस्बे नुमा व्यापारिक केंद्र में तब्दील चुका है जहाँ आस पास के गांवों के लोग सौदा सूलुफ लेने आया करते हैं। हमने अपने बचपन काल(1963-64) में पूजन साहु को देखा था जो उस समय 80-82 साल के रहे होंगे।



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