पगली लड़की - कुमार विस्वास

मावस की काली रातों में, दिल का दरवाजा खुलता है ,
जब दर्द की काली रातों में, गम आंसूं के संग घुलता हैं ,
जब पिछवाड़े के कमरे में , हम निपट अकेले होते हैं ,
जब घड़ियाँ टिक -टिक चलती हैं , सब सोते हैं , हम रोते हैं ,
जब बार बार दोहराने से , सारी यादें चुक जाती हैं ,
जब उंच -नीच समझाने में , माथे की नस दुःख जाती हैं ,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है ,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है .

जब पोथे खाली होते हैं , जब हर्फ़ सवाली होते हैं ,
जब ग़ज़लें रास नहीं आतीं , अफसाने गाली होते हैं .
जब बासी फीकी धुप समेटें , दिन जल्दी ढल जाता है ,
जब सूरज का लश्कर , छत से गलियों में देर से जाता है ,
जब जल्दी घर जाने की इच्छा , मन ही मन घुट जाती है ,
जब कॉलेज से घर लाने वाली , पहली बस छुट जाती है ,
जब बेमन से खाना खाने पर , माँ गुस्सा हो जाती है ,
जब लाख मन करने पर भी , पारो पढने आ जाती है ,
जब अपना हर मनचाहा काम कोई लाचारी लगता है ,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है ,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है

जब कमरे में सन्नाटे की आवाज सुनाई देती है ,
जब दर्पण में आँखों के नीचे झाई दिखाई देती है ,
जब बड़की भाभी कहती हैं , कुछ सेहत का भी ध्यान करो ,
क्या लिखते हो दिनभर , कुछ सपनों का भी सम्मान करो ,
जब बाबा वाली बैठक में कुछ रिश्ते वाले आते हैं ,
जब बाबा हमें बुलाते हैं , हम जाते हैं , घबराते हैं ,
जब साड़ी पहने एक लड़की का फोटो लाया जाता है ,
जब भाभी हमें मनाती हैं , फोटो दिखलाया जाता है ,
जब सारे घर का समझाना हमको फनकारी लगता है ,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है ,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है

दीदी कहती हैं उस पगली लड़की की कुछ औकात नहीं ,
उसके दिल में भैया , तेरे जैसे प्यारे जज्बात नहीं ,
वो पगली लड़की मेरी खातिर नौ दिन भूखी रहती है ,
छुप -छुप सारे व्रत करती है , पर मुझसे कुछ ना कहती है ,
जो पगली लड़की कहती है , मैं प्यार तुम्ही से करती हूँ ,
लेकिन मै हूँ मजबूर बहुत , अम्मा -बाबा से डरती हूँ ,
उस पगली लड़की पर अपना कुछ भी अधिकार नहीं बाबा ,
ये कथा -कहानी किस्से हैं , कुछ भी तो सार नहीं बाबा ,
बस उस पगली लड़की के संग जीना फुलवारी लगता है ,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।



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