गाॅंव का बिगडता स्वरूप - संजय भरद्वाज की मार्मिक कविता

ना वो श्रद्वा,ना वो ममता, दिखती अपने गाॅंव में
लोग नही बैठे दिखते हैं अब बरगद की छाॅंव में
जिन सपनो का बीता बचपन खेतों में खलियानों में
झोपड़ पट्टी आव - भाव सम्भाव दृष्टि मेहमानो में
आज कंहा दिखते हैं छाले ग्रामीणो के पाॅंव में
ना वो श्रद्वा, ना वो ममता, दिखती अपने गाॅंव में


बनी झोपडी जो सपनो की,अपनो से ही खाक हुयी
शहरों की संस्कार,श्रृष्टि से मृगतृष्णा आवाक हुयी
हुआ पलायन शहरों, कस्बो ,नगरों की निगरानी में
आज कंहा ,र्निमलता दिखती है पोखर के पानी में
मेहमानो की आशा, भांषा थी कव्वों की काॅंव में
ना वो श्रद्वा,ना वो ममता, दिखती अपने गाॅंव में
पंञ्चायत की बैठक सिमटी, मतभेदों की चालों से
ग्रामीणों के उठे भरोसे सरपंञ्ची चैपालों से
सगे सम्बन्धी और सिफारिस,ग्रामसभा के न्यायालय
दूध,दही की नदियों से,अब घर घर चलते मदिरालय
कलह कष्ट में सरिता साहिल ,पार ना होंगे नाव में
ना वो श्रद्वा, ना वो ममता, दिखती अपने गाॅंव में
ठंडी - ठंडी पवन , गमन करती थी शाम-सवेरे
चिडियों की चॅहचाहट मेरे गाॅंव को रहती घेरे
रंग रगीली तितली,खग,मृग कलरव करते आॅंगन में
इन्द्र धनुष के मेघ बरसते थे,पल्लव के सावन में
आज फंसी है जीवन लीला राजनीति के घाव में
ना वो श्रद्वा, ना वो ममता, दिखती अपने गाॅंव में
फिर से गाॅंव बसाने निकला, मैं कविता के छन्दों से
मुक्त करूॅंगा इस धरती को जयचन्दों के फन्दों से
जय-जवान और जय-किसान के नारे फिर से लाउॅंगा
प्रेम - भाव की हरी - भरी ये धरती पुनः बसाउॅंगा
मैं संजय भरद्वाज हूॅं, छन्द समर्पित, करता हूॅ आभाव में
ना वो श्रद्वा, ना वो ममता, दिखती अपने गाॅंव में।।



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